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मोदी 2.0: तीन तलाक पर कानून कितना जरुरी?

बेबी तबस्सुम*

समकालीन उत्तर-औपनिवेशिक राज्य में “मुस्लिम महिला (विवाह के अधिकार पर संरक्षण) विधेयक (2019)” को महिलाओं के अधिकार विशेष रूप से गरिमा, स्वतंत्रता, लैंगिक न्याय एवं मौलिक अधिकारों का सजग प्रहरी के रूप में देखा जा रहा है। जिसे “तीन तलाक कानून” के रूप में भी जाना जाता है। विधेयक का पारित होना विपक्ष के विरोध के बाबजूद, सामाजिक सुधारों पर दृढ़ता से ध्यान केंद्रित करने की मोदी सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह उन मुस्लिम महिलाओं को वैधानिक ढाल प्रदान करता है जो पूरी तरह से अन्यायपूर्ण प्रथा का खामियाजा चुपचाप सहन कर रही हैं। यह बिल अपने भीतर कई प्रगतिशील प्रावधानों को समाहित करता है। इस बिल में मौखिक, लिखित या इलैक्ट्रॉनिक तरीके से एकसाथ ‘तीन तलाक’ देने को कानूनी अपराध माना गया है। मात्र इसका उच्चारण करने पर ही पति के तीन वर्ष के लिए कैद का प्रावधान है। पीड़ित महिला को कोर्ट से गुहार लगाने, उचित मुआवज़ा पाने और नाबालिग बच्चों की कस्टडी लेने का प्रावधान किया गया है। किन्तु वहीं दूसरी तरफ यह बिल कई सारे विवादित प्रश्नों को भी धारण किए हुआ है।

      आलोचकों का कहना है कि सायरा बानों बनाम भारतीय संघ (2017) मुकदमें में ‘ट्रिपल तलाक’ पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में ‘तीन तलाक’ को असंवैधानिक व गैर-कानूनी घोषित किया था। अत: इस पर किसी नए कानून की जरूरत नहीं है। इस प्रश्न का जबाव देना मुश्किल नहीं है। “शमीम आरा बनाम उत्तर-प्रदेश (2002)” मुकदमें में न्यायालय ने ‘तलाक-ए-बिद्दत’ (ट्रिपल तलाक) को अवैध करार दिया था। इस केस में कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि तलाक की एक प्रक्रिया होगी, तलाक का एक वाजिब कारण होगा और तलाक से पहले दोनों पक्षों की तरफ से समझौते की कोशिश होगी। जिसे तब से ‘तीन तलाक’ पर प्रतिबंध लगाने के ‘कानून’ के रूप में लिया गया है। अत: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-141 के सन्दर्भ में यह कानून सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर लागू होता है।

      वहीं सायरा बानों (2017) केस को मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का ‘ट्रिपल तलाक’ पर ऐतिहासिक, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष फैसला माना गया है। लेकिन इसके बाद भी ‘फौरी ट्रिपल तलाक’ के एक के बाद एक केस सामने आए हैं। केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री रवि शंकर प्रसाद कहते है कि “सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कुप्रथा को गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार दिए जाने के बावजूद 2017 से 31 मई 2019 तक ‘ट्रिपल तलाक’ के 543 केस हमारे संज्ञान में लाया गया है। उनमें से 324 सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद हैं। उत्तर-प्रदेश में 201 मामलों के साथ सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है।” रामपुर (यूपी) के अजीमनगर की गुल अफशां बनाम कासिम मामलें में पत्नी को तीन तलाक़ से इसलिए घोषित कर दिया गया क्योंकि वह सुबह देर से सोकर उठी, टांडा जिले की आयशा बनाम कासिफ मामलें में दहेज की मांग के चलते तीन तलाक दिया गया। वहीं अन्य मामलें में पत्नी के काले रंग की वजह से उसे तलाक दे दिया गया। मुंबई की मदीना सैय्यद को भी पति अनवर द्वारा तीन तलाक दिया गया। अत: सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और पीड़ितों की शिकायतों का निवारण करने हेतु कानून बनाने की जरूरत महसूस हुई।

   इसके अतिरिक्त  इस बिल की सबसे बड़ी आलोचना इसके ‘आपराधिकरण प्रावधान’ को लेकर है। यदि हमें इस पर निवारक के रूप में कानून बनाना है तो उसमें एक आपराधिक स्वर होना जरूरी है। ताकि तलाक कहने से पहले लोगों के मस्तिष्क में डर बैठ जाए कि सोच कर कहना पड़ेगा, वरना इसके नतीजे यह हो सकते हैं। ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ में विवाह एक अनुबंध है। लेकिन ‘तलाक-ए-बिद्दत’ का परिणाम सीधी तरह से भेदभाव का परिणाम बन जाता है। हर पक्ष का ‘सिविल’ पहलू हो सकता है और ‘आपराधिक’ पहलू भी हो सकता है। यहां पर भेदभाव रोकने के लिए ‘आपराधिक निवारक’ (Criminal Deterrent) तैयार किया गया है। यदि ‘आपराधिक निवारक’ का इस्तेमाल नहीं किया गया तो कोर्ट का निर्णय एक तरफ होगा और जमीनी स्तर पर उसका अमल नहीं होगा। जिसका भुगतान महिलाओं को करना पड़ता है।

       भारतीय दंड संहिता की धारा- 494 में ‘द्विविवाह’ करने पर सात वर्ष की सजा और साथ ही ‘आर्थिक दंड’ से दंडित किये जाने का प्रावधान है। अस्पृश्यता जैसे कृत्यों को ‘आपराधिक अपराध’ माना गया है। क्या दहेज संरक्षण कानून के तहत मुस्लिम पुरुष जेल नहीं जाते हैं? मान लो किसी को फांसी दे दी गई उसका परिणाम यह हुआ कि उसके परिवार के जितने सदस्य जो उस पर निर्भर थे। उनको उसका खामयाजा भुगतना पड़ेगा क्योंकि हो सकता हो उस सदस्य से ही उनकी आजीविका चलती हो। उसको फांसी देना इसलिए वैध है क्योंकि उसने हत्या का अपराध किया है। इसका उद्देश्य मुस्लिम पुरुष को जेल भेजना नहीं है, बल्कि धार्मिक रीती-रिवाजों के आड़ में मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव को रोकना है। 

  वहीं हमें इस तथ्य पर भी ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है कि ‘ट्रिपल तलाक’ समानता के जो कानून है, मौलिक अधिकारों और साथ ही ‘शरीयत’ का भी उल्लंघन करता है। “सायरा बानों” केस में न्यायधीश आर.एफ. नरीमन और न्यायधीश यूयू ललित निर्णय में कहते है कि “1937 का शरीयत एक्ट में उन विषयों के बीच विशेष रूप से ‘ट्रिपल तलाक’ का उल्लेख नहीं किया गया है। यह केवल ‘तलाक’ शब्द का उपयोग करता है और स्पष्ट करता है कि इसमें ‘इला’, ‘जिहार’, ‘लियान’, ‘खुला’ (पत्नी द्वारा तलाक) और ‘मुबारत’ (पारस्परिक सहमति से तलाक) आदि शामिल है। लेकिन तलाक के प्रकार के रूप में ‘ट्रिपल तलाक’ को ‘शरीयत एक्ट’ सूची में मान्यता नहीं देता है।” यहां यह उल्लेख करना भी अनिवार्य है कि ‘शरीयत’ दैवीय कानून नहीं है। इसका स्रोत कुरान और हदीस (सुन्नत) नहीं है, बल्कि ‘शरीयत’ औपनिवेशिक समय में ब्रिटिशर्स द्वारा बनाया गया मात्र एक कानून है। ठीक वैसे ही जैसे ‘मुस्लिम लॉ’ पर बनाए गए बाकी कानून है। उदाहरण के लिए- “मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम (1939)” और “मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार पर संरक्षण) अधिनियम (1986)” आदि।

      इसके अलावा मुस्लिम लॉ कहता है कि “किसी भी समस्या का हल सर्वप्रथम कुरान में ढूंढा जाएं, फिर हदीस (सुन्नत) पर आया जाए।” परन्तु आज जिस तरह की समस्याएं उत्पन्न हो रही है, उस समय न हो जब पवित्र ग्रन्थ कुरान को लिखित रूप दिया गया हो। इस समस्या के समाधान के लिए ‘मुस्लिम लॉ’ में ‘इज्मा’ और ‘कियास’ का प्रावधान है। ‘इज्मा’ ‘मुस्लिम लॉ’ के विशेषज्ञों और न्यायविदों की सहमति के द्वारा विकसित की गई है। इनका मानना है कि नई परिस्थितियां ‘नए तथ्यों’ और ‘नए कानूनों’ की मांग करती हैं। वहीं ‘कियास’ “एनालॉजिकल डिडक्शन” की प्रक्रिया है, जो नए कानूनों के खोज पर बल देती है। ‘मुस्लिम लॉ’ के द्वितीयक स्रोत में परम्पराएं, न्यायिक निर्णय और विधायन आते हैं। अत: यह बिल इसी का परिणाम है जिसे उत्तर-औपनिवेशिक राज्य के द्वारा निर्मित किया गया है।

       मुस्लिम महिला (विवाह के अधिकार पर संरक्षण) विधेयक के एक वर्ष पूरा होने के अवसर पर ‘द ट्रिब्यून’ से बात करते हुए रविशंकर प्रसाद कहते है कि “’ट्रिपल तलाक’ के खिलाफ कानून काम कर रहा है और इच्छित लक्ष्य को प्राप्त कर रहा है। क्योंकि सरकारी आकड़ों से पता चला है कि इस तरह के मामलों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है।” सरकारी आकड़ों के अनुसार, जो कि वक्फ बोर्ड, अल्पसंख्यक आयोगों और स्थानीय प्रसाशन से प्राप्त फीडबैक पर आधारित है। वर्ष 1985 से 2019 के बीच ‘ट्रिपल तलाक’ के 3,82,964 मामले सामने आए हैं, जो प्रति वर्ष लगभग 11,263 घटनाओं के साथ आता है। पिछले एक साल में केवल 1,039 घटनाएं दर्ज की गई क्योंकि कानून लागू किया गया था।

      रविशंकर प्रसाद ने कहना है कि “इस विधेयक को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि यह मानवता, महिला सशक्त्तिकरण और लैंगिक समानता का मामला है।” वे इस बिल को रूपांतरित भारत की शुरुआत बताते हुए कहते है कि “दोनों सदनों ने मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिया है प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व में सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को न्याय देकर अपनी प्रतिबद्धता को पूरा किया है।” इस प्रकार इस कानून ने ट्रिपल तलाक को समाप्त कर समाज में ‘लैंगिक समानता’ और ‘लैंगिक न्याय’ प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि “इस बिल के जरिये ऐतिहासिक गलत को सही करने का प्रयास किया गया है।”

*पीएचडी शोद्यार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय


Comments

One response to “मोदी 2.0: तीन तलाक पर कानून कितना जरुरी?”

  1. बहुत सुंदर लेख , मेहनत की गई हैं लेख लिखने मैं ।
    Very Good keep going on..
    Best of luck for your future..

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